Board Paper of Class 10 2007 Hindi Delhi(SET 1) - Solutions
(ii) चारों खण्डों के प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है।
(iii) यथासंभव प्रत्येक खण्ड के उत्तर क्रमश: दीजिए।
- Question 1
निम्नलिखित गद्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
यहाँ के लोगों को अपनी खूबसूरती नज़र नहीं आती, मगर पराए के सौंदर्य को देखकर मोहित हो जाते हैं। जिस देश में जन्म पाने के लिए मैक्समूलर ने जीवन-भर प्रार्थना की उस देश के निवासी आज जर्मनी और विलायत जाना –स्वर्ग जाना –जैसा अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को प्राचीन 'गुरू शिष्य संबंध' की महिमा सुनाना गधे को गणित सिखाने जैसा व्यर्थ प्रयास ही हो सकता है।
एक बार सुप्रसिद्ध भारतीय पहलवान गामा मुंबई आए। उन्होंने विश्व के सारे पहलवानों को कुश्ती में चैलेंज दिया। अखबारों में यह समाचार प्रकाशित होते ही एक फ़ारसी पत्रकार ने उत्सुकतावश उनके निकट पहुँच कर उनसे पूछा - "साहब, विश्व के किसी भी पहलवान से लड़ने के लिए आप तैयार हैं तो आप अपने अमुक शिष्य से ही लड़कर विजय प्राप्त करके दिखाएँ?" गामा आजकल के शिक्षा-क्रम में रँगे नहीं थे। इसलिए उन्हें इन शब्दों ने हैरान कर दिया। वे मुँह फाड़कर उस पत्रकार का चेहरा ताकते ही रह गए। बाद में धीरे से कहा - "भाई साहब मैं हिंदुस्तानी हूँ। हमारा अपना एक निजी रहन-सहन है। शायद आप इससे परिचित नहीं हैं। जिस लड़के का आपने नाम लिया, वह मेरे पसीने की कमाई, मेरा खून है और मेरे बेटे से भी अधिक प्यारा है। इसमें और मुझमें फर्क ही कुछ नहीं है। मैं लड़ा या वह लड़ा दोनों बराबर ही होगा। हमारी अपनी इस परंपरा को आप समझने की चेष्टा कीजिए। हम लोगों को वंश-परंपरा ही अधिक प्रिय है। ख्याति और प्रभाव में हम सदा यही चाहते हैं कि हम अपने शिष्यों से कम प्रमुख रहें। यानी हम यही चाहेंगे कि संसार में जितना नाम मैंने कमाया उससे कहीं अधिक मेरे शिष्य कमाएँ। मुझे लगता है, आप हिंदुस्तानी नहीं हैं।"
भारत में गुरू-शिष्य संबंध का वह भव्य रूप आज साधुओं, पहलवानों और संगीतकारों में ही थोड़ा ही सही, पाया जाता है। भगवान रामकृष्ण बरसों योग्य शिष्य को पाने के लिए प्रार्थना करते रहें। उनके जैसे व्यक्ति को भी उत्तम शिष्य के लिए रो-रो कर प्रार्थना करनी पड़ी। इसी से समझा जा सकता है कि एक गुरू के लिए उत्तम शिष्य कितना महँगा और महत्वपूर्ण है। संतानहीन रहना उन्हें दु:ख नहीं देता पर बगैर शिष्य के रहने के लिए वे एकदम तैयार नहीं होते। इस संबंध में भगवान ईसा का एक कथन सदा स्मरणीय है। उन्होंने कहा था, "मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ कि जो मुझ पर विश्वास रखता है, ये काम जो मैं करता हूँ वह भी करेगा, वरन् इससे भी बड़े काम करेगा, क्योंकि मैं पिता के पास जाता हूँ।" यही बात है, गांधी जी बनने की क्षमता जिनमें है, जिन्हें गांधी जी अच्छे लगते हैं और वे ही उनके पीछे चलते हैं। विवेकानंद की रचना सिर्फ उन्हें पसंद आएगी जिनमें विवेकानंद बनने की अद्भुत शक्ति निहित है।
कविता के मर्मज्ञ और रसिक स्वयं कवि से अधिक महान होते हैं। संगीत के पागल सुनने वाले ही स्वयं संगीतकार से अधिक संगीत का रसास्वादन करते हैं। यहाँ पूज्य नहीं, पुजारी ही श्रेष्ठ है। यहाँ सम्मान पाने वाले नहीं, सम्मान देने वाले महान हैं। स्वयं पुष्प में कुछ नहीं है, पुष्प का सौंदर्य उसे देखने वाले की दृष्टि में है। दुनिया में कुछ नहीं है। जो कुछ भी है हमारी चाह में, हमारी दृष्टि में है। यह अद्भुत भारतीय व्याख्या अजीब-सी लग सकती है पर हमारे पूर्वज सदा इसी पथ के यात्री रहे हैं।
उत्तम गुरू में जाति-भावना भी नहीं रहती। कितने ही मुसलमान पहलवानों के हिंदू चेले हैं और हिंदू संगीतकारों के मुसलमान शिष्य रहे हैं। यहाँ परख गुण की, साधना की और प्रतिभा की होती है। भक्ति और श्रद्धा की ही कीमत है, न कि जाति संप्रदाय, आचार-विचार या धर्म की। मुझे पढ़ाया-लिखाया था –एक विद्वान मुसलमान ने ही। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि यह हिंदू है और इसे मुसलमान बनाना चाहिए। पुराने ज़माने में मौलवी लोग बड़े-बड़े रामायणी होते थे और आज भी देहातों में भरत मियां, रामू मियां, रंजीत मियां आदि अधिक संख्या में दिखाई देते हैं।
(i) किन लोगों को गुरू-शिष्य संबंध की महिमा समझाना असंभव कार्य है? (2)(ii) गामा ने पत्रकार को हैरान होकर क्यों देखा? (2)
(iii) सच्चा गुरू अपने शिष्य के विषय में किस प्रकार का विचार रखता है? (2)
(iv) वर्तमान समय में गुरू-शिष्य संबंध का थोड़ा-बहुत भव्य रूप कहाँ दिखाई देता है? (2)
(v) कविता के मर्मज्ञ और रसिक कवि से भी महान क्यों होते हैं? (2)
(vi) सच्चे गुरू के लिए किस चीज़ का अधिक महत्त्व होता है? (2)
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- Question 2
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।।
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गए इक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर।
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर।।
गरजती जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर।
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लहर।।
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।।
चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना।
काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना।।
जो कि हँस-हँस के चबा लेते हैं लोहे का चना।
है कठिन कुछ भी नहीं जिनके है जी में यह ठना।।
कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं।
कौन सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।।
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।।
गर्भ में जल-राशि के बेड़ा चला देते हैं वे।
जंगलों में भी महा-मंगल रचा देते हैं वे।।
भेद नभ-तल का उन्होंने बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार की सारी क्रिया।।(i) किस प्रकार के व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं? (2)
(ii) कर्मवीर या परिश्रमी व्यक्ति को कौन-सी परिस्थितियाँ विचलित नहीं कर सकतीं? (2)
(iii) 'चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना' पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। (2)
(iv) उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने क्या सन्देश दिया है? (1)
(v) इन पंक्तियों में से कोई दो मुहावरे छाँटकर लिखिए। (1)
अथवा
बहुत रोकता था सुखिया को,
'न जा खेलने को बाहर'
नहीं खेलना रूकता उसका
नहीं ठहरती वह पल-भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे।
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।
भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवास सुखिया के तन को,
ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर।
मुझको देवी के प्रसाद का,
एक फूली ही दो लाकर।
क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे।
दीप-धूप से आमोदित था
मंदिर का आँगन सारा,
गूँज रही थी भीतर-बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।
भक्त-वृंद मधुर कंठ से,
गाते थे सभक्ति मुद-मय
'पतित-तारिणी, पाप-हारिणी
माता तेरी जय-जय-जय!'
'पतित-तारिणी, तेरी जय-जय'
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढिकला।
मेरे दीप-फूल लेकर व
अंबा को अर्पित करके,
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा बेटी को माँ के ये
पुण्य पुष्प दूँ जाकर मैं।
सिंहिपौर तक भी आंगन से,
नहीं पहुंचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – 'कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जाए,
बना धूर्त यह है कैसा,
साफ-स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों के जैसा!
पापी ने मंदिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी,
कलुषित कर दी है मंदिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।'
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया,
मार-मराकर मुक्के-घूंसे
धम-से नीचे गिरा दिया।
मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सब-का-सब,
हाय! अभागी बेटी, तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब!
अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ के प्रसाद का
तूझको दे न सका मैं हा!(i) सुखिया के पिता के मन में किस प्रकार का भय विद्यमान था? (1)
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(ii) ज्वर की स्थिति में सुखिया ने अपने पिता से क्या कहा? (1)
(iii) पुजारी से प्रसाद लेकर सुखिया के पिता ने क्या सोचा? (2)
(iv) भक्तों ने सुखिया के पिता की पिटाई क्यों की? (2)
(v) प्रसाद धरती पर बिखर जाने पर सुखिया के पिता के मन में क्या विचार उभरा? (2)
- Question 15
(i) "एक कहानी यह भी" की लेखिका के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का और किस रूप में प्रभाव पड़ा? (3)
(i) "एम.ए., बी.ए., शास्त्री और आचार्य होकर पुरूष जो स्त्रियों पर हंटर फटकारते हैं और डंडों से उनकी खबर लेते हैं, वह सारा सदाचार पुरूषों की पढ़ाई का सुफल है।" लेखक के इस कथन में तत्कालीन समाज के पूरूषों की मानसिकता पर अपने विचार लिखिए। (2)
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